Friday 23 December 2016

नोट बंदी एक आर्थिक त्रासदी

एक विकासशील अर्थव्यवस्था में 86% मूल्य के नोट रातोंरात बाजार से बाहर कर देना, जहा 90% लेन देन कॅश में होता है और लगभग 40% आबादी का किसी बैंक में कोई खाता नहीं है और यह सारी मशक्कत उस 2% काले धन को ख़त्म करने के लिए जो बड़े नोटों में दबा है।  किसी को भी यह समझने के लिए अर्थशास्त्र के  विशेष ज्ञान की ज़रूरत नहीं है कि यह फैसला ग्रामीण अर्थव्यवस्था और लघु उद्योगों के लिए किसी आपदा से कम नहीं है।

आज हम माध्यम वर्गीय लोग भी बहार खाना खाने के लिए ठेले वाले को नही बड़े रेस्टॉरेंट ढूंढते हैं जहाँ कॅश से पेमेंट का झंझट न हो। राशन के सामन से लेकर  ज़रूरत की हर वस्तु खरीदने के लिए छोटे दुकानदारों को नहीं बल्कि बड़े शॉपिंग मॉल जाने को  मजबूर है भले ही वह पैसे ज्यादा देने पड़े। समझ जा सकता है।कि इस फैसले से किसका फायदा हो रहा है और किसका नुक्सान। ग्राहक के व्यवहार में यह परिवर्तन अन्य विकल्पों को ख़त्म करके जबर्दस्ती थोपा जा रहा है।।

आम आदमी घंटो बैंक की लाइन में लगने को मजबूर है। बैंक में बचत खाते का मतलब ही यह होता है कि मांगे जाने पर ग्राहक को भुगतान किया जाएगा। फिर बचत खाते से आहरण की सीमा निर्धारित करना क्या ग्राहक  और  बैंक के मध्य करार का उल्लंघन नहीं है। इस आधार पर बैंको की तरफ से सरकार को सभी जमाधारको को हर्जाना भरना चाहिए ठीक उसी रकार जैसे बैंक आपके खाते में न्यूनतम राशि न होने पर शुल्क वसूलते हैं।

कभी कुछ  दिन पहले ही लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति पर ढीले रवैये को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को लताड़ लगाते हुए भ्रष्टाचार के  खिलाफ साकार की मंशा पर सवाल उठाये थे। वैसे भभ्रष्टाचार को लेकर सरकार की गंभीरता पर जो थोड़ा बहुत संदेह था वह तब दूर हो गया जब सभी राजनीतिक दलों के खातों में बिना किसी जांच के पुराने नोट जमा करने की छूट दे दी गयी। जाहिर है हम्माम में सब नंगे हैं और आरोप प्रत्यारोप का यह ढोंग सिर्फ जनता को मूर्ख बनाने के लिए है।

बेहतर होता की सरकार उस 98% काले धन पर हमला करती ओ गोल्ड, रियल एस्टेट और विदेशी बैंको में जमा है। पर शायद उससे उन बड़ी मछलियों को समस्या होती जो या तो सरकार चला रहे हैं या सरकार चलने वालों को। वैसे भी नोटबंदी सिर्फ काले धन के भण्डार पर हमला करता है उसके प्रवाह पर नहीं यानि इससे भविष्य में होने वाले भ्रष्टाचार पर कोई कमी नहीं आएगी। असल में समस्या बड़े नोटों की नहीं चरित्र और नैतिक मूल्यों की है जिनका हमारे देश में नितान्त अभाव है।

जनसत्ता 22 दिसम्बर 2018 में प्रकाशित

http://epaper.jansatta.com/m/1044938/Jansatta.com/22-December-2016#issue/6/1


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